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"ना समझे तुम हमे -तब भी और भी

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कहानी कुछ अल्फाज मे "ना समझे तुम हमे -तब भी और भी हमारे कोम के नाम से डर जाया करते थे लोग , पर अपने ही लोग गद्दार निकले देश को कमजोर करने मैं ,तब भी और अब भी ।। हम विश्वास की इमारतें बना बैठे थे परंतु क्या पता था, निवं खोद रहे हैं घर के ही लोग, तब भी और अब भी।।  इस मुल्क को अपना-अपना कहकर न जाने कितनी बार आग लगा दी तुमने, और कहते हो, विश्वास करो हम पर ,तब भी और अब भी ।।  हम पर रोज हंसा करते थे शोर कर कर के , पर एक मुस्कुराहट हमारे चेहरे पर ना आई और तुम बुरा मान गए, तब भी और अब भी ।।  कितने तुम्हारे मरे जिन्हे तुम बेगुना कहते हो ,  परंतु क्या हिसाब है हमारे कितने जलील हुए,  कितने हिंदू मरे ,तब भी और अब भी ।।  गुस्सा मैं भी हूं ,तुम में से न जाने कितनी गालियां दी गई इस मुल्क को बार-बार, पर मौलाना आजाद और कलाम के जीवन समर्पण ने  विश्वास थाम रखा है हमारा, तब भी और अब भी।।  हाथ खुशी और भाईचारे के रंग में रंगने सीखे हैं संस्कारों में हमने,  पर तुम हमारी जगह होते-हम तुम्हारी जगह इस मुल्क में तुम मार ही देते हमे ,तभी और अब भी ।।